स्वयं से आरंभ किये होते
निश्चय होती, संशय न था,
जाने किस खोज में भटक रहा
तृष्णावश, तुष्टी लय न था।
यदि मौलिक धर्म के मर्म गहे
वहीं संप्रभुता सिरमौर सजी,
धरती की सीमा है सीमित
और मानवता है सर्वोपरि।
नैतिक मूल्यों का मोल बढ़े
तो सार्वभौम उत्थान भी हो
समृद्ध युक्त जब हो भूतल
स्वर्णिम-सा नवल विहान भी हो....
किसी भाषा के अधीनस्थ न हों
यह लिपि तो बस माध्यम है,
अभिव्यक्त करे जो मनोभाव
तभी विश्व बना इक आँगन है...
इस राजनीति का मर्म भुला
क्यूँ राजधर्म की बात कहे
कर मानवता का वैश्वीकरण
फिर, रंग, धर्म न जात रहे।
क्यूँ क्षेत्रियता में बंटे रहें
मानवीय मूल्य धरोहर है
हो विश्वपटल पर नैतिकता
निर्मल सम मानसरोवर है।