Last modified on 4 नवम्बर 2009, at 22:14

निष्ठुर / अनूप सेठी

तुमने सोचा होगा
पहाड़ का सीना है पिघल जाएगा
कानों के पास सरसराती हवा
खिलेंगी बराह की लाल लाल बिंदियाँ
देवदारों की गहरी हरी चुन्नियाँ
तपती कनपटियाँ नम होंगी
पकड़ के हाथ तुमने सोचा होगा
ढलान के साथ बस आज ही तो उतरेगा पहाड़

पहाड़ के कँधे पर इँद्र का मँदिर है
पुराण का इतिहास है
कड़ी छाती में आह! बफानी झीलें हैं
सूरज अकेले में आकर गुनगुनाता है
चाँद के लिए वो आइना हैं
तुमने सोचा होगा
खुद से लेकिन एक दिन तो बोलेगा पहाड़

पहाड़ का पानी ही रक्त
फलाँगता तैरता पँहुचता नहीं कहाँ तक
मछलियों को चमक देता
सीपियों को स्वप्न देता
बैठकर बालू तट पर तुमने सोचा होगा
विस्तार से विशाल मन
आखिर कभी तो खोलेगा पहाड़
(1987)