हाँ, बिंधने दो प्रतिपल अपने
आघातों से यह अंतर,
जाने कब, बन जायँ अचानक
इस में सप्त रन्ध्र सुंदर!
जन्म-जन्म के रुद्ध प्राण ये,
एक प्रेरणा में, अनजान,
मेरी उस नवीन वंशी से
फूट पड़ें बन आकुल तान;
विश्व-सुंदरी के अंचल का
उस स्वर पर लहरावे छोर,
उठे अनादि भावनाओं के
‘रस’--मानस में नई हिलोर;
विचलित मधुप, पँखड़ियाँ कंपित,
पुलकित अरुण ‘रूप’--शतदल,
विस्मित हो भारती, स्तब्ध हों
वीणा पर उँगलियाँ चपल।