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निस्वार्थ प्रेम / लालित्य ललित


प्रेम क्या है
मैंने तो बता दिया
क्या बता दिया
मैंने यह बोला कि प्रेम वो है
कि जिसमें ख़ुद को भूल कर
दूसरे की याद आती है
जहां ‘मैं’ नहीं रहता
हम खो जाते हैं
कहां खो जाते हैं ?
बताओ
‘मैं’ ही नहीं हूं
जहां हर क्षण में
आनंद है
सच्चा आनंद है
जहां अपनी तकलीफ़
दुनिया का दुःख
महसूस ही नहीं होता है
और तुम बैठे बिठाए
लोक-परलोक
मन से, दिमाग़ से
‘अथाह’ ले सकते हो
जब ‘अहम्’ ख़त्म हो गया
फिर तो कोई
कष्ट ही नहीं है
तुम्हारा तो निर्वाण हो गया
दुनिया की रस्में निभा कर
भी नहीं पा सकते
वैसे भी पा सकते हो
ख़ुद को देना
ख़ुद को सौंपना
यह भी बड़ी बात है
अलग-अलग देव हैं
अलग-अलग आराधक है
जहां मन हो, रम जाओ
अपने-अपने स्वभाव से
चलने के लिए स्वतंत्र हो
अपनी-अपनी निष्ठा है
भाव यही है
अपने मन में
एक बात ज़रूर लाओ
प्रेम करो
प्रेम का प्रकाश लाओ
रास्ता ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाएगा
अपने-अपने धर्म का
मानते हो कहना
मानो
पर दूसरों पर न थोपों
मंज़िल एक है पर
रास्ते अनेक हैं
और वह रास्ता है
शत-प्रतिशत निस्वार्थ
प्रेम का
इससे अलग कुछ नहीं
इससे बेहतर कुछ नहीं ।