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निहोरा / कुमार वीरेन्द्र

अरे मौसी हो मौसी
बहे पुरवइया ना बहे पछेआ हो मौसी, तनि डाड़े-डाड़े झोंपे-झोंपे जाइके
छू-छू गिराई देती हो मौसी, एकभोरे से अगोरे बैठे हैं भइया-बहिनी, झोरा
झोरी खाली हो मौसी, का बेच कीनें, आटा-चाउर बस
दुई किलो टपकाई देती पाकल
आमवा हो मौसी

आमवा में बसे हमर परानवा हो मौसी

कि पेड़ प दोकना में बैठी रुखी
गँवे-गँवे बढ़ने लगी, तो भइया-बहिनी ने एक-दूसरे से धीमे से कहा, 'अरे चुप-चुप जा रही
है मौसी, चुप-चुप...', लेकिन मौसी को भी रह-रह, जाने कवन आशँका, पाँच डेग बढ़ी तो
पाँच डेग पाछे उँहे आ बैठी, जहाँ थी, फिर मूँड़ी घुमा-घुमा ओर
चहुँओर, डाड़े-डाड़ ताकम-ताक, भइया
बहिनी फिर बेआस

माथे दे मारे हाथ, करने लगे पुनः निहोरा

अइसे काहे करती हो, ए मौसी
हमहुँ तोहार पुतवा-पुतरिया हो मौसी, रेक्शा की कमाई से, बाबू ई दुई गो पेड़वा, मोजर पर ही कीने
घरवा में घटे नाहीं नीमक-आटा हो मौसी, माई पाथे दस गो गोइंठा खातिर दोसरा के गोबर हो मौसी
तनि-सा डाड़े-डाड़, जाई छू-छू गिराई देती, बूझऽ बतिया, अबहीं हम बचवा
चढ़ जाते काहे गोहराते, तू त गांगी मइया, हिलोरवा
कोरे-कोर उठा, हियरवा जुड़ा देती
हो मौसी, मौसी

कि देखिए, उतर रही थी जो पेड़ से रुखी

देखते हुड़काया फिर 'हुड़-हुड़'
हुड़काया तो तँग आ कि का, फुरु-फुरु फुदकत डाड़े-डाड़ झोंपे-झोंप फेरी प फेरी बेरी-बेरी, करने
लगी, तब टपकन क्या, पथार पड़ गया, आखिर भर ही गए, आम से, भइया-बहिनी के झोरा-झोरी
भर गए तो देखा मौसी दोकना में गँवे बैठ, एगो टहटह सिन्दुरियवा ले कुतर
रही, ई त नीक रे सुतार, ई त नीके-नीक रे आहार
भइया-बहिनी हो निहारें, टके
टक हो बहार

दुनों के मुखवा पे जेठ में सावनी लहार

कि छोड़ा कि छूट गया
भद् से गिरा आम, दुनों भइया-बहिनी दौड़े पहिले लपकने को, ई आम की बात ही अउर, रुखी का
जुठियाया जो, लेकिन बहिनी तो बहिनी, पहिले लपका तबहुँ, भइया को ही दिया, चाभने को, फिर
एक बार भइया तो एक बार बहिनी, दुनों चाभ रहे गाते, 'मौसी का जुठवा एक
चाभा चाभऽ हो भइया, मिलेगी तोहे कनिया सुनर कनिया
हो भइया; मौसी का जुठवा एक चाभा
चाभऽ हो बहिनी

मिलेगा तोहे दुलहा

सुनर दुलहा हो बहिनी..!'