जाने क्यों काली-काली कोयलों  को 
आजकल नींद नहीं आती --
आधी-आधी रात कर्कश स्वर में 
समूह में चिल्लाती  हैं 
एक बस्ती से दूसरी बस्ती !
जैसे उनके बाप के पेड़ कट गए हो 
पंचम स्वर बासी पड़ गया है 
या एक-आध बिखरे पेड़ डराने लगे है 
या हमारे दौर में चाँद सर पीट रहा है ।
सो नहीं पातीं दिन भर कलह में 
अतृप्त चाह छिपकर रहने की जददोजहद   
प्रतिशोध भरा कंठ हो गया है 
जाने क्यों मुझे भी नींद नहीं आती ।