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नींद कोई वेश्या / प्रेरणा सारवान

पिछले जन्म में
मेरी नींद शायद
कोई वेश्या थी
तभी तो तमाम रात जागती है, जगाती है
कोठों पर नाचती फिरती है
रिझाती है ख्वाबों को
लुटाती है ख़ुमार
बेचती है ख़ुद को
कमाती है नज्में
और सुबह किसी
शरीफ़ औरत की तरह
पलकों की खिड़की से
बाहर भी नहीं झाँकती है।