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नींद बे-आवाज़ / शहनाज़ इमरानी

अन्धेरी रात में बरसता है सहमा-सा पानी
अभी हवा दरख़्तों को छू कर गुज़री है
कुछ दैर शोर मचाया है पत्तों ने
इतना अन्धेरा और तन्हाई
दर्द की बाँसुरी के सुराखों पर
रखी हो उँगलियाँ जैसे

कई ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हों
रात के चहरे पर दो ख़ाली आँखें
दीवार से फ़िसल कर गिरती है
बारिश थम गई है दरख़्त ऊँघने लगे
नींद बे-आवाज़ आ कर कहती है
सोना नहीं है क्या ?