याद है मुझे वह
खंडहर रंगशाला की मुंडेर पर, खुले में,
नृत्य बिना वाद्य का
चाँदनी के तार ही जब गुंजरित हो उठे थे,
किलकी थी मरुतों की बाँसुरी ।
किंकणी से बुध-शुक्र,
गमक उठा था द्रुत ताल पर
हिया ये मृदंग-सा ।
याद है तो
गूँज रहा होगा वह अभी वहाँ
साथ मिल पत्थरों में छने हुए झरने के शोर के,
झिल्ली की सारंगी,
मंजरी खनकाती वन-पत्तियाँ ।
नीरव मृदंग ।
यति अन्तहीन ।
स्मरण के मंच पर थिरकीं थी तुम,
कलहंसिनी, जो—
कहाँ गई ?