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नृत्य / प्रतिभा सिंह

वह नृत्य करती हुई
बहुत सुंदर दिखती है
उतार देती है एक-एक अक्षर
विभिन्न भाव भंगिमाओं में
घृणा द्वेष प्रेम तिरस्कार संवेदना
और भी बहुत कुछ
छलकने लगता है
उसके पोर-पोर से
लीन हो जाती है वह इस कदर
अपनी नृत्य कला में
कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता
सिवाय कान में पड़ रहे अदृश्य शब्दों के
वह भूल जाती है कि
उसकी सक्रियता
धीरे धीरे अक्रियता में बदल रही है
शुरुआती दिनों में
उसे जो परिश्रम करना पड़ रहा था
अब अनायास ही उसके अंग
थिरकने लगते हैं
शब्दों के थाप पर
बाँध देती है वह दर्शकों को इस तरह
कि उसके घृणा द्वेष प्रेम विरह में वह
डूबने उतराने लगता है
भूल जाता है कुछ देर ले लिए
हृदय में जमे दुःख के पहाड़ को
और अंत में तालियों की गुंज से
सभागार भी नाच उठता है
तब वह अभिवादन करती है
मुस्कराकर घुंघरुओं को देखती है
कि जबतक नृत्य है
जीवन शेष है
उल्लास और आनंद के बीच
हृदय में पीर का पर्वत समेटकर भी।