Last modified on 3 दिसम्बर 2014, at 13:24

नृपति / विमल राजस्थानी

रत्न-जड़ित पर्यक, मसृण सुमनाच्छादित बिस्तर है
वातायन हैं खुले, आ रहा उमड़-घुमड़ जन-स्वर है
लगता है जैसे समस्त मथुरा के लोग जगे हैं
बहुत बड़ी जन सभा जुड़ी है, जिसमें सभी लगे है
करवट बदल रहे है नृप, टुक नींद नहीं आती है
कही किसी कोने में मन के वासव मस्काती है
यह कोलाहल, यह हलचल, यह महारोर कैसा है !
जन-समुन्द्र यह पूर्णकुभ के मेले के जैसा है
क्या कारण है सभी बावले, द्रवित हुए जाते हैं
चिन्ता-मग्न नृपति पल भर भी चैन नहीं पाते हैं
नगर वधू के साथ न्याय क्या नहीं किया है मैंने ?
जो भी न्यायोचित निर्णय था, सही किया क्या मैंने ?
कही भूल तो नहीं गयी ? इंगित करे कौन अब ?
नहीं किसी में साहस, अभिमत सम्मुख कौन धरे अब ?
वासव को हत्या करते तो नहीं किसी ने देखा
मथुरा के इतिहास-पृष्ठ पर यह कंलक की रेखा
कहीं उग गयी तो भविष्य क्या मुझको क्षमा करेगा ?
कौन ? कौन ? इस शंका की खाई को कौन भरेगा ?
उठ कर बैठ-बैठ जाते है; फिर-फिर सो जाते हैं
चिन्ता, ग्लानि, शोक, शका के घन घिर-घिर आते हैं
घटा-टोप नहीं प्रश्न का उतर सूझ रहा है
छटपट करता है विवेक, डूबा मन जूझ रहा है
गहराई तक जाकर तल का भेद नहीं पाता है
ऊभ-चूक कर रहा, किनारा हाथ नहीं आता है
मन अतिशय उद्विग्न, पलक झपकी न एक भी क्षण को
लगा कि जैसे हुई चढ़ाई, झट जाना है रण को
शत्रु कई दुर्दान्त, अल्प-सी सैन्य-शक्ति अपनी है
ताक रही कतार नयानो से यह अपनी अवनी है
यह दारुण, दाहक संत्रास, घुटन कितनी भारी है
एक-एक शैय्या की, कुसुम कली तयों चिनगारी है
गयी नहीं क्या निशा अभी भी, प्राची! कुछ तो बोलो
रथ की घर्-घर् सुनो, आ रहे रवि, छवि-घूँघट खोलो
मरघट में विदू्प पड़ी होगी रंगीन कहानी
कही न भर ले री! इतिहास नयन में अपनी पानी
शंकाओे का समाधान अब व्यर्थ, व्यर्थ है चिन्तन
न्याय या अन्याय हुआ है व्यर्थ सोचता है मन
लेकिन निर्णय में मुझको और समय लेना था
या मंतव्य प्रजा का इस पर ध्यान तनिक देना था
 निर्णय में जनमत का आदर भी महत्व रखता है
यों विरुद्ध निर्णय के बोल कौन सकता है
बार-बार अन्याय-न्याय का प्रश्न कौंधता है क्यों ?
बार-बार यह प्रश्न हृदय को वेधता है क्यों ?
कही किसी मन के कोने दुर्बलता छिपी हुई है ?
मेरे उर में भी कुछ चंचलता छिपी हुई है ?
वह आलोक पुंज, वह ज्योति, विभा, वह प्रभा अनोखी
वैसी तो त्रैलोक्य में प भी सुनी, गयी थी देखी
किन्तु, न्याय देखता नहीं है व्यक्ति,ाुयश को, वय को
नहीं न्याय के हृदय-मध्य स्थान किसी संशय को
यदि हो गया न्याय अनजाने में भी कहीं प्रभावी
धर्म, जाति, मित्रता-जन्य, आसक्ति भरा, दुनियावी
न्याय नहीं, वह तो होता है झूठा, निपट भुलावा
न्याय-देवि को धोखा देने का निकृष्ट छलावा
किन्तु, किया है मैंने समुचित न्याय, सशंकित फिर क्यों ?
कहीं वासना नहीं, हुआ फिर मन विक्षुब्द, अस्थिर क्यों ?
हाँ, अवश्य खो दी है मथुरा ने अपनी तरुणाई
इसीलिए संभवतः फिर-फिर उसकी स्मृति आयी
वासव की आत्मा निश्चय ही होगी अंतःपुर में
जन-मन डूब रहा है जाकर उसी भैरवी-सुर मं
जिसकी गूँज, चीर जन-रव को, वातायन से आती
उकसा जाती जो मेरे-प्रदीप की बाती
जन्मेगा प्रभात, प्राची के लाल गाल पर थपकी
प्रकृति लगायेगी, निधि लुटा-लुटा प्रकाश-आतप की
खग-कुल-कलरव गूँजेगा, भौंरो के झुंड उड़ेगे
कठिन विरह की रैन बिता कर प्रेमी हृदय जुड़ेगे
सू्य्रदेव! प्रकटो, प्रकटो, किरणो की डोर बढ़ज्ञओ
मिले सहारा मुझे, शीघ वासव के गृह पहुँचाओ
मन को शांति दिलाने,शंका को निमर्ल बनाने
जप-रव करने शान्त, छिन्न वीणा के तार मिलाने