नेतृत्व का नायक
कभी यहाँ,
कभी वहाँ
भटकता है,
अपना सिर
बुरी तरह पटकता है,
झाड़ियों के मुँह में
अटकता है,
सत्य की
आँख में खटकता है।
रचनाकाल: ०१-०८-१९९१
नेतृत्व का नायक
कभी यहाँ,
कभी वहाँ
भटकता है,
अपना सिर
बुरी तरह पटकता है,
झाड़ियों के मुँह में
अटकता है,
सत्य की
आँख में खटकता है।
रचनाकाल: ०१-०८-१९९१