प्रकृति में नवप्राणों का संचार किया है वसन्त ने,
सब कुछ चमक उठा है उल्लासपूर्ण मौन में,
चमक उठा है नील समुद्र और नीला आकाश
चमक उठा है क़ब्रिस्तान और पथरीला पहाड़
नए-नए रंग उभर आए हैं वृक्षों पर
चारों ओर फैले मौन में उनकी छाया
झूल रही है मस्त लहरों की तरह
बहार के हाथों सहलाए संगमरमर पर ।
उसकी विजय का पेरून कब का पड़ चुका है शान्त
आज तक संसार में उसका गूँज रहा है युद्धनाद ।
महाअंहकार छाया है जनमानस में
पर उसकी परित्यक्त छाया अकेली इस बीहड़ तट पर
आकर्षित करती है अपनी ओर
पक्षियों का कलरव और लहरों का शोर ।
(1828-1854)