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नेह-स्वांग / हिमांशु पाण्डेय

 
 
उसने नेह-स्वांग रच कर
अपने सामीप्य का निमंत्रण दिया
नेह सामीप्य के क्षणों में
झूठा न रह सका
अपने खोल से बाहर आकर
नेह ने अपनी कलई खोली
दिखा वही गुनगुना-सा
निष्कवच, निःस्वांग विदेह नेह ।

क्षुधा की तृप्ति नेह की तृप्ति नहीं
साहचर्य का उन्माद नेह का विकसन नहीं
दृष्टि का प्रमाद हृदय का स्वाद नहीं
दृश्य का दृष्टान्त अस्तित्व का सत्य नहीं
सब अनमने पन के
निष्ठा में परिवर्तित होने का ऐन्द्रिक जाल है ।

स्वांग परिवर्तन नहीं
परिवर्तन का आभास है,
नेह सायास उपलब्धि नहीं
नेह की सृष्टि अनायास है