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नैराश्य / विमल राजस्थानी

आयेगा कि न आयेगा, यह उलझन बहूत बड़ी थी
वासव कभी देहरी पर तो छत पर कभी खड़ी थी
एक-एक क्षण मगपति से भी बड़े लगते थे
चहुँदिशि उसी सरीखे भिक्षुक खड़े उसे लगते थे
एक झलक, बस एक झलक में रोम-रोम में व्यापा
तीन डेग में जैसे वामन ने त्रिलोक था नापा
सारा जग सुना है, कोई नहीं विश्व में अपना
लगता है-मैंे देख रही हूँ जैसे कोई सपना
स्वप्न टूट जाते हैं, सारे दृश्य छूट जाते हैं
निपट अकेला हम अपने को जीवन में पाते हैं
हृदय निछावर है असंख्य नर, किन्नर और सुरो के
यक्ष और गन्धर्वो के, उर न्यौछावर असुरों के
नयन-झील में छप् से उतर,हृदय में जो आ जाये
मेरे रोम-रोम में जो मंदिरा बन कर छा जाये
मत्त बना दे मैं जिसके सँग झूँमँू-नाचँू-गाऊँ
जिसके वज्र-बाहुओं में भिँच तृषा असीम बुझाऊँ
जो मेरा हो, केवल मेरा यही चाह है मन में
आज हुआ उपलब्ध मुझे वह प्रथम-प्रथम जीवन में
आता ही होगा, मेरा जीवन-धन आता होगा
मेरा सुरथ मनोरथ पूर्ण शीघ्र कर लाता होगा
ध्वनि रथ रुकने की सुनते ही वासव बाहर भागी
हो जाते आकुल-व्याकुल यों ही अन्तर अनुरागी
देखा मात्र सुनयना को तो चीख हृदय से निकली
रूप-गर्विता पर हो मानो गिरी व्योम से बिजली
बिना बताये जान गयी वह उत्तर सन्यासी का
हुँह! इतना अपमान पुरुष से, प्रेमासव-प्यासी का!
नर तो नर सुर जिसके चरणो पर लोटते रहे हैं
एक झलक के लिए न जाने कितने कष्ट सहे हैं
जिसने कभी उपेक्षा, अवहेलना नहीं जानी है
रूप गर्विता ने न किसी सहार नहीं मानी है
उसका प्रेम-निवेदन यों मिट्टी में गया मिलाया
एक अकिंचन भिक्षुक ने यो सहज उसे ठुकराया
कुचली हुई क्रुद्ध, आहत साँपिन-सी, छिन्न लता-सी
भू-लुंठिता, पंखुरी-हीना कलिका बात हता-सी
वासव की हृद-वाणी के सब तार झन्न् से टूटे
बिखरे वन्दनवार, द्वार के कलश सुमंगल फूटे
सिंहद्वार अर्गलित, उदासी महलोे पर मँडराती
धरे रहे श्रृंगार-प्रशाधन, चहुँ दिशि चिन्ता छायी
घुँघरू खिन्न, उदास वाद्य, औंधी सुगन्ध की झारी
पीड़ा से भर उठे चहेते मथुरा के नर-नारी
सुना कि अब वासव गायेगी नहीं, नहीं नाचेगी
तज सोलह श्रृंगार,भाग्य-लिपि रो-रो कर बाँचेगी
सुर्रिभ केतकी-रज की चढ़ कर अब न वायु के रथ पर
बिछ पायेगी गली-गली में, वीथि-वीथि, पथ-पथ पर
मृगनैनी,पिकबैनी ने जो मौन विकट धारा है
लगा कि जैसे हृदय-हृदय पर लोटा अंगारा है
दिया अमोघ वचन अपनी को-मौन रहेगी
सात सुरो की सुरसरि अब यमुना के सँग न बहेगी