ऎसी कोई मशीन नहीं जो सपने गिन सके
सपने जो धरती पर फैल जाते हैं
जैसे बीज हों फूलों के
ऎसी कोई मशीन नहीं
जो गिन सके इच्छाओं को
उस प्रत्येक कम्पन को
जो अन्याय और यातना के विरोध में
पैदा होता है
दहशत पैदा करती है नोटॊं की फड़फड़ाहट
कोई पीता है चांदी के कटोरे में
आदमी का लहू
हमारी मेहनत का मधु कोई पीता है
एक जाल जो रोज़ गिरता है हम पर
पर दिखता नहीं
इस जाल के एक-एक ताँत को जो गिन सके
ऎसी कोई मशीन नहीं
जैसे जंगल हो बिन्द्रानवागढ़ का
और पेड़ों को गिनना हो कठिन
कठिन है गिनना
प्रेम और स्वप्न और इच्छाओं को
आदमी का गुस्सा लावा बनता है
और उसके प्रेम से फैलता है आलोक
- फूलते हैं गुलाब
ऎसी कोई मशीन नहीं
जो तारे गिन सके और गुलाब
जो फूलते हैं आदमी के प्रेम में
- रात्रि के अरण्य में
और दिन की टहनियों पर असंख्य ।