उतरी ऐलै दमचुरुवॅ अधवैसू पूस महीना,
बन-बन के गाछीं चढ़लै पितमरूवॅ जरठ बुढ़ारी।
वै लोकॅ के चिन्ता जेना ताकै छै सरङॅ केॅ,
झरखराय गेलै जिनगी केरॅ हरियरका पत्ता।
झिहिर-झिहिर पसरै बतास में बेलस एक उदासो,
सुसुआबै छै सिहिर-सिहिर सिहरी-सिहरी बसबिट्टी।
जेना कट्ठर दिल अन्यायी ने अन्याय करी केॅ,
लूटी सब सिंगार गाँव-के-गाँव उजाड़ करलकै।
बेलज दुष्ट परास मगर खुशियाली में ढकमोरै,
हौलकॅ होलै देह लुटैला सें जेना नङटा के।
धनी पड़ोसी के दरिद्र होला सें वें मानॅ की,
पीड़ा पहुँचाबै लेॅ उगलै लाल-लाल अंगारा।
तय्यो कुछ नवतुरिया बचलै अन्यायी नजरी सें,
दुखमय जिनगी में जेना सुख के कुछ झलक बचै छै।
या, सूखसट चेहरा पर सुन्दरता के कोनो रेखा;
देखबैया के आँखी में उभरी केॅ खूब फबै छै।
यमुना सें कुछ दूर बनें राजा घूमै रंथें पर,
कमल-गंध पुरबा के कान्हा पर अनचोके ऐलै!
कमल फुलैलै यै मौसम में, कोन सरोवर यैहनॅ?
मानस तेॅ उत्तर में छै, चमकी केॅ राजाँ सोचै।
आज्ञा पाबी गंधॅ के रुख पर रथ केॅ हाँकलकै,
रथी-सारथी चललै बतियैने भरलॅ अतरज सें।
यमुना के कातें-कातें योजन भर गेला बादें;
जे देखलकै ऊ देखी मन राजा के चकरैलै।
एक रूपसी बैठी केॅ नावॅ पर करै प्रतीक्षा,
खपसुरती अपरूप, देह में मह-मह गंध झरै छै।
मादकता के सार समेटी केॅ तीनों लोकॅ के;
एक जगह मानॅ देने के छै जौरॅ करी विधाताँ
ढलढल आँखीं पलक थिरैलॅ पर्वत के भारॅ सें,
या, मोती-ऊपर जल केरॅ छितरॅ लहर-ठमकलॅ।
या टटका कोंपल ने चितरी तिरङी मस्त अदा सें,
औढ़ करी लेने छै थिर कोवा में ओसकनी केॅ।
हल्का नील पटोर झाँपल गर्दन सें नीचें तक,
तुरत थकरलॅ केश बिथरलॅ छै सौंसे पीठी पर।
पछियें नीलाम्बर पर झरलॅ श्याम मेघ के झरना;
छिलकै छै पूबें मानॅ ऊषा के पहलॅ लाली।
राजा रथ सें उतरी केॅ गेलै खिंचल नावॅ तक,
नावॅ सें उतरी अगवानी में खड़ुवैलै युवती।
हाथॅ सें संकेत करलकै जेना यात्री कानो;
उतरै खातिर पार नाव सें, नावॅ तक ऐलॅ छै।
मुग्ध-विभोर-मौन छड़पी राजा चढ़लै नावॅ पर,
खुललै पाल तरी धँसलै यमुना के नोल लहर में।
गहराई में डुबलॅ मन, राजा के ऊपर ऐलै;
परिचय देलकै खुद के, परिचय पूछलकै युवती के।
”सत्यवती योजनगंधा हम्में निषाद के कन्याँ,
धरमारथ में पार उतारै के धन्धा हमरॅ छेॅ।
धन्यभाग राजाधिराज के सेवा के अवसर ई;
मिललॅ आय हठात, पिता के आज्ञा पालन क्रम में।
”हमरो ई सौभाग्य आय दर्शन तोरॅ होलॅ छेॅ,
लागै छै संभव नै रहबॅ दूर तनिक तोरा सें।
जों बीहा मंजूर हुअेॅ तेॅ धन्य मानबॅ जीवन,
सूनॅ राजभवन हँसतै, स्वरगॅ के खुशी पसरते।“
”पराधीन लेॅ खुद निर्णय करना हौतै वाजिब नै,
एक्को तिल बढ़ना नै संभव बिना पिता आज्ञा सें।“
-संकोचॅ में गड़ी कहलकै सत्यबतीं मुस्की केॅ-
”जे करतै से बाप्हैं करतै हमरा करना कुछ नै।“
तेॅ लेॅ चलॅ निषाद राज लग, नीति यहॅ बौलै छै;
करियॅ नै संकोच मनॅ के सत्य बात खोलै में।
तोरॅ रं अनमोल रतन केॅ माँगै में इन्ध्रौ केॅ,
ऊ गौरव होतै, जे स्वरगॅ केॅ माँगै में होतै।
राजा के प्रस्ताव सुनी बूढॅ निषाद गुमड़ैलै;
कुछ पल मौन रही केॅ खोललकै वें बात मनॅ के।
”ई भागॅ के बात कि वर राजाधिराज सें सुन्दर,
आरो नै होतै धरती पर सत्यवती के लेली।
लेकिन एक शर्त्त छै-राजा होतै एकरे बेटा;
जों मंजूर हुअेॅ तेॅ हमरा होतॅ कोय हिचक नै।
कमलॅ पर मानॅ बरफॅ के टुकड़ा गिरलै भारी,
कुम्हलैलै राजा के चेहरा एक घड़ी में फक् सें।
जिनगी केॅ फेरू बिड़म्बनाँ टोकलकै डपटी केॅ;
युवराजॅ के रूप उमड़लै आँखी में हँसलॅ रं।
”धिक जीवन, धिक-धिक बिड़म्बना सें जे की भरलॅ छै,
धिक् यौवन के चाह, निठुर रं खेलै आँख मिचौनी।
धिक् स्वारथ जें सब कुछ तेजी सिद्ध करै अपनालेॅ;
सुख के साधन, नीति-धर्म केॅ ताखा पर राखी केॅ।“
चललै यमुना तरफ बिना कुछ कहने राजा धीरें
सत्यवतीं फरू लै गेलै पार वही नावॅ पर।
दोनों गुम, दोनों उदास, पर दोनों के सात्विकता;
बरकरार रहलै, जेना की मर्यादा सागर के।
नावॅ सें उतरी केॅ थोड़ॅ दूर ताय ँ अरियाती,
योजनगंधाँ विदा करलकै प्रेमिल अभिवादन सें।
छलछलाय उठलै बरबस बेबस आँखी के डोरॅ;
मूँ फेरी लौटी पड़लै चट, राजा ने देखेॅ नै।
लेकिन मन के बात मनॅ तक पहुँचै में देरी की?
कतनो करॅ उपाय वेदना दाबी कॅ राखै के,
उघरी जाय छै भेद बराबर झाँपै के फेरॅ में,
एक टीस राजा के हिरदय में हहरी केॅ उठलै।
पसरी गेलै गहन उदासी बन-बन के आलम पर,
जिनगी के संदेश पीर के अक्षर सें लिखलॅ छै।
गुमसुम आबी केॅ राजा हौलै सबार रंथॅ पर;
सहमी केॅ गंभीर सारथीं हाँकी देलकै रथ केॅ।