न जाने कहाँ से
इन आँखों में
काँटों का जंगल
उग आया था
बन्द न होतीं आँखें
सो न पायी कभी
जब भी झपकी पलकें
चुभ गये ढेरों काँटे
चुपचाप
कौन आया
पलकों पर
और चुन डाले
सारे काँटे ?
अनायास
एक दिन
पलकें झपकीं तो
पीड़ा नहीं हुई
मैं सो गयी
अनजान
मुक्तिदाता को
ढूंढ़ती रही
अन्ततः
दिख गये तुम
ओ मेरे मुक्तिदाता