Last modified on 13 अगस्त 2008, at 23:43

न जाने क्यों / महेन्द्र भटनागर

मुझे मालूम है यह चांद मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूलकर स्वर्गिक-महल से हिल नहीं सकता,

चरण इसके सदा आकाशगामी हैं,
रुपहले-लोक का यह मात्र हामी है,

न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
न जाने क्यों उसी की याद बारंबार करता हूँ !

मुझे मालूम है यह चांद बाहों में न आएगा,
कभी भी भूलकर मुझको न प्राणों में समाएगा,

अमर है कल्पना का लोक रे इसका,
नहीं पाना किसी के हाथ के बस का,

न जाने क्यों उसी पर व्यर्थ का अधिकार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !

मुझे मालूम है यह चांद कैसे भी न बोलेगा,
कभी भी भूलकर अपने न मन की गाँठ खोलेगा,

सरल इसके सुनयनों की न भाषा है,
समझने में निराशा ही निराशा है,

न जाने क्यों उसी से भावना-व्यापार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !

मुझे मालूम है यह चांद वैभव का पुजारी है,
बड़ी मनहर गुलाबी स्वप्न दुनिया का विहारी है,

वे मेरे पंथ पर काँटे बिछे अगणित,
अभावों की हवाएँ आ गरजती नित,

न जाने क्यों उसी से राह का शृंगार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !