न शोर
न सन्नाटा
न शून्य
न अनुभूति
अवाक जरूर हूँ
नटों का खेल
जीवन
संतुलन बिगड़ा नहीं कि
धराशायी
कब, कहाँ हुई भूल ?
स्थितियों का जायजा लेती
सोचती हूँ
फिर उठूंगी
चल पड़ूंगी
मेरे लिए
क्यों न बना रहे
सिर्फ नटों का खेल
जीवन