इधर कितनी ही कविताएँ पास आईं
और चली गईं
उनकी आँखों में जिज्ञासा रही होगी
क्या कुछ हो सकेगा उनका
इस उदास-सी हो गई स्त्री पर
भरोसा करके
यह तो अब लिखना ही नहीं चाहती
कोई थकान इसे बेहाल किए रहती है
यह बताना नहीं चाहती किसी को
कि होने के पार कहीं है वह आजकल
जहाँ चीज़ें अलहदा हैं
उनमें आवाज़ नहीं होती
हवा वहाँ लगातार सितार-सी बजती रहती है
अपने न होने को पसन्द करने वालों के लिए
ख़ुशनुमा वह जगह
जिसकी कल्पना ‘होने’ से सम्भव नहीं
कविता सोचती है शायद
यह स्त्री एक कल्पना हुई जाती है
पेड़ों, पक्षियों की ज्यों अपनी कल्पना
मनुष्य जिसमें अँटते ही नहीं