न होने दो हिसाब साफ!
इस जनम की-
अपनी मानसिक-आत्मिक लेन-देन का-
अपनी गरम-विह्वल साँसों का-
हिसाब-किताब
अधूरा, उलझा-गुँथा ही पड़ा रहने दो!
नहीं तो हम भूल जायेंगे
एक-दूसरे को-
खो जायेंगे जब हम
अनन्त, काले, गाढ़े, नीरव अँधेरों में!
दराँतीदार दाढ़ों वाली मौत की क्रूरताओं के बीच
बस,
एक यही तो अपने बस की कारगर बात है-
कम-से-कम इतना तो
जाब्ता रखो इन आँधियों में, अँधेरों में
अपने प्यार को
अमर-अनन्त, जीवन्त-ज्वलन्त
बनाये रखने का!
बुझते दीये की बाती से निकलती
धुएँ की लकीर-सी याद को अँधेरों में जिलाये रखने का!
शेष तो-सब कुछ है ही नियति का मनचीता-
सब कुछ अँधेरा-मौन, शून्य, रीता।
1984