Last modified on 15 मई 2010, at 11:57

पंक्ति / लीलाधर मंडलोई

सब अपनी जगह से टूटता
अंग-प्रत्‍यंग हालांकि कहने भर को
आत्‍मी बची कहने में संदेह
दोस्‍त-अहबाब में बेहिसाब कमी
सच कहने में भय इतना कि साबित झूठ-सा

बदला बहुत कुछ कि यातनाएं बढ़ीं बहुत
तौर-तरीके हिंसा के होते गए क्रूरतम
जीवनांत या चोट के निशान गायब
कि मार बंधी इतनी कि सबूतों से परे

सीधे कोई आता है निर्भय-निशंक
याकि एक दस्‍ते का नेतृत्‍व करता
सामूहिक नरसंहार के खेल में
मरे हुओं के साथ इतने कम लोग
कि एक समाचार को सेंकते दल-बल

पृथ्‍वी पर कहीं होता है कोई
यातनाओं को भूलता
चीखता बीच चौराहे
उस पर हंसते मुंह दबाते लोग
कहीं कोई होता है एक तिनका सही
एक पंक्ति सही धीरे-धीरे खड़ी होती