Last modified on 29 जनवरी 2009, at 22:02

पंख / सरोज परमार

 
माई री...
मेरी डोली में पंख मत रखना
उसे मेरी नज़रों से ओझल
किसी नदी में मौर-सा सिरा देना
या
किसी दुतल्ले पर रखे नाने वाले
सन्दूकचे में क़ैद कर देना

कभी बहुत मचला जिया
तो लूँगी उधार उनसे पंख
महसूसूँगी रंगीले पंखों की उड़ान
कुछ पल.
फिर तो भारी करधनी
ज़मीन छोड़ने नहीं देगी
ओढ़नी उलझेगी कई खूँटों से
धीरे-धीरे उड़ना भूल जाऊँगी
पंख भूल जाऊँगी.