Last modified on 2 सितम्बर 2018, at 12:54

पंचतत्व / पल्लवी त्रिवेदी

तुम्हें प्रेम करना प्रकृति को प्रेम करना है
तुम्हारी सम्पूर्ण देह पंच तत्वों का सबसे खूबसूरत मेल है
तुम्हारे धरती-से सख्त सीने पर सर रखकर जान जाती हूँ
कि आख़िर क्यों मिल जाना होता है एक दिन मिट्टी से
प्रेयस की धड़कन मिट्टी की पुकार है
तुम ही वो माटी हो जिससे गढ़ रही हूँ प्रतिदिन
रोज़ थोड़ी सी तुम जैसी हो रही हूँ
तुम्हारी गर्दन के वलयों से फूटते हैं जल प्रपात
इस मीठे जल को चूमकर बुझती है मेरी नेह की प्यास
और अगले ही पल मैं पहले से ज्यादा प्यासी हो उठती हूँ
प्यास जल से ज्यादा है और जल प्यास से बहुत ज्यादा
इन दो भुजाओं के मध्य टंगा हुआ है सम्पूर्ण आकाश
जो मुझे बांधकर कर देता है पूर्ण मुक्त
न सीमा है आकाश की,न मेरे विचरण की
मेरी देह में प्रवेश करती है यज्ञ की एक पावन लौ
एक ओज से भरी अग्नि जल उठती है दो देहों के हवनकुंड में
एक सुगन्धित ताप से निखर उठता है हमारा प्रेम
मेरी देह की बांसुरी में तुम अपनी साँसें फूंकते हो
दसों दिशाएँ बज उठती हैं प्रेम संगीत से
प्रकृति का कण-कण झनझनाता है
पंछियों के गले से सुर फूट पड़ते हैं
नदियों में जलतरंग बजाती हैं मछलियाँ
बाँध नूपुर नाचते हैं देव और गन्धर्व
हम ही आदम और हव्वा है
आसमान से देखते हैं हमारी देहों को नृत्य करते
देहें राग-रंग रचती हैं
प्रकृति रचती है केवल प्रेम
तुम्हें प्रेम करना प्रकृति को प्रेम करना है