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पंचतात्विक राष्ट्र-वंदना / सोम ठाकुर

तेरी धरा तेरा गगन
वाचाल जल पावन अगन
बहता हुआ पारस पवन
मेरे हुए तन मन वचन

तेरी धरा महकी हुई
मंत्रों जगी स्वर्गों छुई
पड़ते नहीं जिस पर कभी
संहार के बहते चरन

तेरा गगन फैला हुआ
घिर कर न घन मैला हुआ
सूरजमुखी जिसका चलन
जीकर थकन पीकर तपन

वाचाल जब चंचल रहा
आनंद से पागल रहा
जिसका धरम सागर हुआ
जिसका करम करना सृजन

पावन अगन क्या जादुई
तेजस किरन रचती हुई
जिसमें दहे दुख दर्द ही
जिसमें रहे ज़िंदा सपन

पारस पवन कैसा धनी
जिसकी कला संजीवनी
जो बाँटता हर साँस को
जीवन-जड़ा चेतन रतन