पतिपद प्रेमताग सैं तागलि
सुता-सनेह-शील- रस-पागलि।
की करतब विचार में लागलि
रानी छली राति भरि जागलि॥1॥
सोचथि हाथ गाल पर धयने
“सब दिन छलहुँ मनोरथ कयने।
सबटा होयत जे हम चाहब
जुगलत वरसौं धिया वियाहब॥2॥
राजकुमार वयस नव नागर
बल बुधि रूप शील गुन-आगर।
करब जमाय नयन भरि देखब
तहि दिन अपन भाग धनि लेखब॥3॥
हेमरतन भूषण प्रति अंकक
ओढ़न पहिरन रंग विरंग क।
वर कैं देव ताहि विधि जौतुक
हयत कुबेरहु कैं मन कौतुक॥4॥
सकल परोसि क नयन जुरायब
ललसा अपना मनक पुरायब।
ने बुझि की दैवक मन ऐलनि
प्राननाथ दारुन प्रन कैलनि॥5॥
जे सुयोग्य गन्धर्व अमर वर
से वन्दी बनि छथि रावन घर।
वीर मनुष के धनुष उठावत
सुनि प्रन आब असुर दल आवत॥6॥
तहि में जे क्यौ धनुष उठावत
हमरि सोन-सनि बेटी पावत।
तकरा भवन कोन विधि रहती
दुख सुकुमारि कोन विधि सहती॥7॥
छली करैत मनहि मन गुन धुन
बाजल चुहचुहिया ता चुन चुन।
मानु कहैछ सगुन शुभ वानी
करू अहाँ चिन्ता जुनि रानी॥8॥
भेल प्रकाश, मलिन पुनि दीपक
यथा जनक लग कुटिल महीपक।
वन्दीगन क भेल मंगल धुनि
लगला वेद पढ़य ब्राह्मण मुनि॥9॥
अलिगन चलल कमलवन तहिना
बुधजन जनक नृपति-लग जहिना।
अरुणक उदय हँटल भूछाया
जहिना ज्ञान-उदय सौं माया॥10॥
लागलि दासी भवन बहारय
झोलक सङ अन्हार जनु टारय।
देखि ततय रानी कैं बैसलि
अगम विचार-उदधि में पैसलि॥11॥
कहलक हाथ जोड़ि रानी सौं
अवसर जानि मधुर वानी सौं
“मलिकाइनि! रातिहि सौं जागलि
कोन छगुनता में छथि लागलि॥12॥
यदपि हिनक लग किछु उपदेसब
थिक दिनकर लग दीपक लेसब।
तदपि उचित थिक दासी-दासक
तन मन सौं निज प्रभु क उपासक॥13॥
बनि हुनकर कल्यान मनाबय
विनु कहनहु हित वचन सुनाबय।
तैं किछु कहक भेल अभिलाषा
छमिहथि हमर अनर्गल भाषा॥14॥
विधि क प्रेरना जहि विधि भेलनि
तहि विधि महाराज प्रन कैलनि।
जे सिरजल सीतासनि नारी
से अतिमति विवेक-व्रतधारी॥15॥
हयता अवस हृदय में धयने
हिनक जोग वर सिरजन कयने।
अहि हेतुक नहिं सोच करक थिक
चिन्ता तौं परतच्छ नरक थिक॥16॥
गौरी पूजथु राजकुमारी
कन्या हेतुक ई व्रत भारी।
सावित्री नित गौरि मनौलनि
तहिसौं मन वांछित फल पौलनि॥17॥
इहो पूजि यदि गौरि मनौती
तौं निश्चय अभिमत वर पौती।
सुनलहुँ हिनकहि सबहिक कहने
की नहिं हो गौरिक पद गहने”॥18॥
सुनि भोरहि दासिक प्रिय वानी
बजली मधुर सुनयना रानी।
“दाइ! कथा ई हमहुँ जनै छी
हमहुँ कतहु गुरुआनि बनै छी॥19॥
पर-उपदेश समय सब ज्ञानी
अपन बेरि भुतिआय पिहानी।
कौआ आबि चार चढ़ि कुचरल
तैखन बुझल सगुन शुभ उचरल॥20॥
आबि रहल छथि पाहुन दूरक
क्यौ हित हमर मनोरथ-पूरक।
देखह वाम अंग फड़कै अछि
तैयो हमर कोंढ़ धरकै अछि॥21॥
जौं राक्षस क्यौ धनुष उठावत
तौं निश्चय सीता कैं पावत।
असुर मानुषी कैं की मानत
कुकुर कमलिनी कैं की जानत?॥2॥
छगुनि छगुनि छल जी दहलायल
तोर बोल सुनि मन बहलायल।
हम ओ श्री महराज दुहूजन
नित करैत छी गौरिक पूजन॥23॥
हुनकहि सेबि सकल सुख पौलौं
जे चाहल से काज बनौलौं
जहि अहि सौं किछु बुझनुकि भेलौं
नित भरोस हुनके हम कैलौं॥24॥
कहुनि दाइ कैं गौरि अराधथु।”
ई विधि कहि दासी कैं वानी
लगली अपन काज में रानी॥25॥
दासी उठि सीता लग जाकय
कहलक माइक कथा बुझाकय।
सुनि सीता बजली मृदु वानी
“हम ई सदा हृदय सौं जानी॥26॥
गौरिहु सौं बढ़ि हमरि माय छथि।
हितचिन्तक पुनि बाप भाय छथि।
“पिता समान थिका भगवानक”
सुनल तत्त्व ई शास्त्र पुरानक॥27॥
माता पिता कहथि जे वानी
तकरा वेदहु सौं बढ़ि मानी।
ई करतब थिक सब नर नारिक
अति विशेष कय ततहु कुमारिक॥28॥
जे क्यौ बापक कहल करै छथि
नित पुनि माइक टहल करै छथि।
से कन्या अभिमत वर पाबथि
तीन भुवन में धन्य कहाबथि॥29॥
नहिं माता सौं बढ़ि क्यौ देवी
सब तजि हुनक चरणरज सेवी।
हमरि माय जग में छथि प्राज्ञा
पालब अवस हुनक सब आज्ञा॥30॥
माइक अनुमति नियम बनायब
हम गौरिक पद पूजि मनायब।
ककरहु छोट पैघ नहिं जानी
हित उपदेश सभक हम मानी”॥31॥
ई कहि सीता सहित सहेली
तुरत हाथ मुँह धोय नहेली।
लोढ़ि फूल अरहूल चमेली
कमल गुलाब बिल्वदल बेली॥32॥
साजि विविध नैवेद्यक डाली
चलली सुमिरि हृदय श्री काली।
सङ गिरिजा-मन्दिर सब गेली॥33॥
दूरहिसौं प्रनाम सब कैलनि
पूजन सामग्री सब धैलनि।
देखि उपलमय गौरिक मूरति
अति प्रसन्न मुख अनुपम सूरति॥34॥
सबजनि हरषि एकटक देखल
जनकसुता शुभ सगुन परेखल।
निर्मल गगन प्रसन्न महीतल
सिहकल पवन सुगन्धित शीतल॥35॥
मुरज सितार-शब्द श्रुति-भावन
पुनि पुनि पड़ल वेद धुनि पावन।
शंख मधुरधुनि द्विजगन फूकल
केकी कोकिल कलरव कूकल॥36॥
गुल्म-लता तरु जे जंगलमय
छल से भेल सकल मंगलमय।
हवन कुण्डबिच लहरल पावक
विषम प्रदक्षिणगति मृगशावक॥37॥
पूर्बदिशा सौं खंजन आयल
जनु गति सिखक हेतु हरषायल।
नारि अनेक कुमारि सुवासिनि
ऐली ततय सुमुखि मृदु-हासिनि॥38॥
लैने हाथ सुमन क्यौ गोवर
क्यौ भरलनि घट पैसि सरोवर।
श्वेतवसन धृत-मस्तक-चानन
विविध विप्रबटु सस्मित-आनन॥39॥
कलित-ललितकर - पुस्तक आयल
मन्दिर उपवन सुकृत समायल।
हरित हरित तरु फलित फुलायल
निरखि जानकिक नयन जुड़ायल॥40॥
वाम अंग पुनि फरकय लागल
हृदय हरष सौं धरकय लागल।
मुदित मनहि मन मन्दिर गेली
आसन उपर बैसि थिर भेली॥41॥
प्रथम सुजल सौं स्नान करौलनि
अभिनव पीतवसन पहिरौलनि।
लागल जहिमें मनिक मनोरी
पुनि चानन ओ सिन्दुर रोरी॥42॥
अक्षत फूल पात पुनि बेलक
शुभ सुगन्ध पुनि अँतर फुलेलक।
धूप दीप ओ पान सुपारी
नानाविध नैवेद्यक थारी॥43॥
अरपि आचमन पुनि करबौलनि
लय पुष्पांजलि सविधि चढ़ौलनि।
कय प्रणाम पद ध्यान लगौलनि
सविनय गौरिक गुनगन गौलनि॥44॥
“जय जग उत्पति-पालन-कारिनि
सकल चराचर हृदय विहारिनि।
जय जय विविध दिव्य-तनु-धारिनि
सकल साधुजन - संकटटारिनि॥45॥
अहाँ कालिका शिवा भवानी
लक्ष्मी अहीं अहीं ब्रह्मानी।
दुर्गा अहीं अहीं इन्द्रानी
अहीं बुद्धि विद्या ओ वानी॥46॥
स्वाहा सुरगन-तुष्टि हेतु छी
स्वधा पितरगन - पुष्टि हेतु छी।
सभक हृदय में भक्ति रूप छी
सभ पदार्थ में शक्ति रूप छी॥47॥
ऋद्धि सिद्धि सम्पति ओ श्रद्धा
सब थल अहीं विराजित अद्धा।
अहीं दया ओ अहीं सुमति छी
अम्ब! अहीं संसारक गति छी॥48॥
कहूँ-कते? नहिं कतय अहाँ छी
से थल नहिं, नहिं जतय अहाँ छी।
जे नभ जल थल पवन अनल अछि
अहिंक मने ई विश्व बनल अछि॥49॥
हरि हर विधि रवि शशि ओ तारा
सब चलैत छथि अहिंक इसारा।
पुण्य पाप, सुख दुख सिरजै छी
ग्रहण करी पुनि अहीं तजै छी॥50॥
कतहु प्रकाश कतहु पुनि छाया
सब जगदम्ब अहिंक थिक माया।
अहीं नीक अधलाह बनाबी
मन हो कतहु प्रगट भै आबी॥51॥
सकल दुष्ट दानव कैं दाबी
सुजन - मनोरथ अहीं पुराबी।
शेष गणेश जतन कै थकला
पार अहाँक पाबि नहिं सकला॥52॥
तौं पुनि हम शिशुमति कुमारि भै
कहि सकै छी की अनारि भै।
अम्ब! भक्तजन-विपति - निवारिनि
अन्तर बाहर जाननि-हारिनि॥53॥
अहिंक चरणरज हमरा मायक
सब दिन सौं अछि भेल सहायक।
सब कैं मनवांछित फल देलौं
तैं पुनि आइ शरण हम ऐलौं॥54॥
तारिणि! आइ हमर कृत पापक
अछि परिणाम भेल परितापक।
कयल प्रतिज्ञा जे बुझि चापक
पुरय मनोरथ हमरा बापक॥55॥
केवल ई वरदान एक दय
करू अनुग्रह सद्विवेक दय।
देवि! अपन हम कहल कहानी
करी उचित अपने जे जानी॥56॥
माङब हम किछु और आनकी?”
ई कहि सविनय कथा जानकी।
जा झुकि देल चरण पर चानी-
ता सुनि पड़ल गगन सौं बानी॥57॥
(हरिगीतिका) -
सुनि पड़ल बानी गगन सौं - “सीता अहाँ धैरज धरू।
मनमें कनेको जनक ओ जननी क जनि चिन्ता करू॥
छथि धन्यतम से जन जनिक घर जनमि छी कन्या अहाँ।
पूरत मनक अभिलाष होयब जगत में धन्या अहाँ॥
घूरत सुदिन पुनि अहिंककृत उद्योग सौं देवक सदा।
कृतकृत्यभै सबजन रहत बनि अहिँक पद सेवक सदा॥
छलि भेलि क्यौ जनि पूर्ववा होइति अहाँ सनि आनकी?
अछि भूमि दोसर भुवन में मिथिलाक भूमिसमान की?
सुनि भूप हेतुक ई सुमंगल रूप वानी जानकी।
तनमें पुलक, मनमें रहल आनन्दसिन्धुक मान की?॥
पुनि-पुनि प्रदच्छिन ओ प्रनाम करैत हुलसित अंग भै।
गौरीक मन्दिर सौं भवन ऐली सहेलिक संग भै॥
सोरठा -
निश्चल नियम बनाय अहिविधिसौं प्रतिदिवस पुनि।
गौरिक मन्दिर जाय कय पूजन आबथि भवन॥
सीताकृत गौरीक पद-पूजन फल सौं व्याप्त।
अम्बचरित में भेल ई पाँचम सर्ग समाप्त॥5॥