वर - वारात विलोक कर, मैना भूली राह।
साश्रुनयन भरती रही, जीभर कर वह आह॥
चिन्तित चित्त उदास मन, माता-उर था ताप।
पिता सोचते क्या किया था सचमुच मैं पाप॥
शिव समेत शिवगण भी तो एक रूप लगते थे,
साथ चल रहे देव भूत गण भी अद्भुत लगते थे।
भृंगी प्रेरि भूत भावन निज गण जब टेरे,
स्वामी का अनुशासन पा आ गये घनेरे।
नाना वाहन-वेष गणों को शिव ने देखा,
हर्षित लख समाज को लेकर उनका लेखा।
जैसा था दुलहा वैसी ही बनी बराता,
कौतुक विविध चला मग में होता था जाता।
बड़ी विलक्षण यह बरात हिमघर जब थी आयी,
उमड़े नगर-लोग स्वागत हित जैसे ही सुधि पायी।
सुर को देख परम आनन्दित थे जन सारे,
बाराती इतने अच्छे, वर होंगे न्यारे।
हरि पर दृष्टि पड़ी दुलहा उनको ही माना,
प्रसन्नता सौगुणी बढ़ी बरभागी जाना।
विष्णु विनोद कहे अरे दुलहा है पीछे,
रुद्रगणों को देख कहे ये तो है बीछे।
बर को देख हुआ भय भागी तत्क्षण प्रसन्नता थी,
बच्चों के सूखे प्राण हर्ष की विपन्नता थी।
भाग चले स्वागत-कर्त्ता निज वाहन लेकर,
क्या करते उस थाल पर नाटक स्वागत देकर।
होता दुलहा और सीख जल्दी के लेता,
सज धज कर जन - मन को आकर्षित कर लेता।
शिव क्षण में निज भव्य रूप दिखला सकते थे,
पल में सब को निकट बुला हर्षा सकते थे।
पर जीवन की यथार्थता कसकर पकड़े थे,
बाल बुद्धि में कभी नहीं वे तो जकड़े थे।
बाल बुद्धि में पति समेत मैना जकड़ी थी,
रहे कुमारी सुता इसी हठ को पकड़ी थी।
दम्भी श्रद्धा के माध्यम से शोसन करता,
मिथ्याभाव, विचार, बुद्धि का पोषण करता।
आडम्बर की श्रद्धा शिव को कभी नहीं भाती थी,
जीवन की यथार्थता दिल से कभी नहीं जाती थी।
श्रद्धा का तात्पर्य न भौतिक सुख-साधन माने थे,
जीवन, मौत, खुशी, गम में सम श्रद्धा जाने थे।
सुता हिमालय का स्वरूप बस ऐसा ही था न्यारा,
था स्वभाव सुन्दर उसका लगता सब को था प्यारा।
शिव के प्रति थी साफ न मन में भ्रान्ति कभी लाती थी,
नारद पर विश्वास अडिग रख छली नहीं जाती थी।
सप्तर्षि ने नारद, शिव पर जो आक्षेप लगाया,
सुनती रही धैर्य से मन को कभी नहीं भटकाया।
अपनी श्रद्धा में तनिक न परिवर्त्तन न उसने लाया,
‘श्रद्धा’ थी स्वयमेव उसे ‘विश्वास’ सदा था भाया।
मैना की थी प्रकृति भिन्न शिव को न समझ पाती थी,
अन्तर था जो रूप मनोहर लख न उसे पाती थी।
भग्न जान उत्साह आरती तक न उतार सकी थी,
दुख से दुखी लौट नारद को गलत समझ सिसकी थी।
बुद्धि हुई विचलित आस्था सत्संग समाप्त हुई थी,
आशा मिटी आत्म हत्या की इच्छा सजग हुई थी।
मैना चली आरती लेकर कंचन थाल सजाकर,
मंगल गान कर रही नारी दिल का वाद्य बजाकर।
विकट वेष दुलहा का लखकर अबला उर भय छाया था,
भय से भवन भाग बैठी थी, इतना मन डर पाया था।
शिव को भी जनवासा जाकर निज दर्शन समझाना था,
समझ न पाते जिसे उसे जग के सम्मुख दिखलाना था।
मैना दुख से द्रवित गोद में बैठी गिरिजा प्यारी थी,
श्याम सरोज नयन से अविरत धारा बहती न्यारी थी।
जिस विधि ने तेरा तन सुन्दर रचकर सुन्दरता दे दी,
उसी विधाता ने बौराहा वर लाकर शादी रच दी।
साथ तुम्हारे पावक में जल भूल ब्याह का काटूंगी,
जल निधि में लेकर समाधि अपयश का भार उठा लूंगी।
गिरि-नारी के दुख को लखकर दुखी हुई अबला प्यारी,
प्रतिक्षण करती थी विलाप कह कथा सुता की जग न्यारी।
नारद का कुछ नहीं विगारी,
बसता भवन उजाड़ दिया॥
ऐसा बर पाने हित ही
गिरिजा को तप में तपा दिया।
सचमुच में धन धाम हीन,
नारद को मोह न माया है।
पर घर-घालक तो है ही,
निष्ठुर निर्मोही काया है।’
समदर्शी शिव के विचार से
घटना जान न रखती थी।
सहज भाव से आँखें उनकी
इसको सदा परखती थी॥
बुद्धिमयी मैना यथार्थ का
अवलोकन कर विचलित थी।
समझ न पाती सुन्दरता जो
छिपी शम्भु में अतुलित थी॥
सत्संग मात्र वह साधन था,
जिससे परिवर्त्तन न संभव था।
अन्यथा समर्पण-भाव वहाँ,
उग पाना परम असम्भव था॥
शिव ने अवसर दिया बुद्धि को
अपना मन-परिवर्त्तन का।
सुर स्वारथी सदा जो रहते
उनके भी मद-मर्दन का॥
सत्य धारणा शिव की आखिर,
प्रगट वहां हो पायी थी।
सप्तर्षि नारद के सिख से
मर्म उमा बुझ पायी थी॥
बुद्धि परिष्कृत हुई समर्पण
श्रद्धा करने व्याकुल थी।
मिटी विषाद महिमा कुछ क्षण
पहले जो मरने आकुल थी॥
शुभ सम्वाद गया घर-घर में,
ले उल्लास वहाँ पल भर में।
प्रगटी सत्य साधना-महिमा
मिटी सभी दुविधा क्षण भर में॥
सप्तर्षि से जान उमा तो
शिव की शास्वत संगिनी थी।
माता-पिता चरण पकड़े
बेटी के जो हिय रंगिनी थी॥
देवाधि देव ने किया अनुग्रह
वहां उमा जो जन्म लिया।
करने श्रद्धा उन्हें समर्पण
का जिसने शुभ योग दिया॥
समर्पण का अभिमान
अन्त था कर्तापन का भाव नहीं।
कन्यादान, दान-दाता
प्रति गृहीता का समभाव सही॥
दाता में था गर्व नहीं,
प्रति गृहीता हीन भाव वंचित।
केवल हर्षोल्लास उमा
शंकर में लखता था संचित॥
तब मैना हिमवंत खुशी से
गिरिजा पद वंदन करते थे।
अबला पुरुष युवा-बच्चे
सब खुशियों का अनुभव करते थे॥
होने लगे होम सुर मंगल
गान सुरों ने तब गाये थे।
वेदी वेद विधान सजे नारी ने
निज स्वर गुंजाये थे॥
सिंहासन अति दिव्य सुहाना,
जो बिरंचि ने स्वयं बनाया।
बैठे शिव विप्रन शिर नाकर
निज उर में भगवान बसाया॥
सखिलाँ पार्वती संग लायी,
करने वरन भूत भावन को।
उस क्षण का शृंगार निरख
सुर धन्य किया जीवन-यापन को॥
देख रूप सुर मुग्ध हुए
सौन्दर्य न लिखने वाला कवि था।
रूप किरण थी निखर रही
पर वहां न कोई नभ का रवि था॥
सुन्दरता की मर्यादा जो
वहां भवानी ने दिखलायी।
कोटि वंदन ने भी कहने में
अपनी लाचारी दिखलायी॥
कोटि बदन ने भी जग जननी
की यदि नहीं शोभा कह पाई।
शेष वेद शारदा अति लाचारी
पर ही थी पछतायी॥
शिव समीप मंडप जा बैठी,
परम सुन्दरी मातु भवानी।
पर लज्जावश निरख न पायी,
पतिपद कमल शकल गुण खानी॥
मुनि आज्ञा पा शम्भु-शिवाने
गणपति पूजी हर्षित हिय से।
सुर को जान अनादि मिटानें
संशय को सब निज निज मन से॥
परिणय के जो नियम वेद ने
बतलाये मुनि सब करवाये।
तब गिरीश ने मातु भवानी
के कर को शिव से पकराये।
शिव के पाणि ग्रहण करते ही
सुर समूह ने हर्ष जताया।
वेद मंत्र मुनियों ने बांचा,
सुर ने जय जय कार मनाया।
विविध वाद्भ बाजे नभ से थे
फूल गिरे नाना प्रकार के।
और धरा थी स्वर्ग बन गई,
भय न रहा दानव-प्रहार के॥
हर गिरिजा के शुभ विवाह से
धरा बनी आनन्दमयी थी।
था उत्साह समग्र भूमि पर,
बसुधा पुलभित मोदमयी थी॥
दासी दास तुरग रथ हाथी,
धेनु वसन मुनि वहां मंगाये।
अन्न कलस भोजन भरकर
हिमवान तुरत वहां ले आये॥
दे दहेज बहु विधि प्रकार के
हिम भूधर कर जोड़ कहे थे।
‘क्या हूं पूरण काम, यही कह
कर शंकर-पदकमल गहे थे॥
कृपा सिन्धु शिवने ससुर को
सब प्रकार सन्तुष्ट किया था।
मैना ने जो दिया प्रेम से
लेकर उसको तुष्ट किया था॥
सास ससुर ने हाथ जोड़कर
कहा ”उमा प्राणों से प्यारी।
गृह दासी की भाँति ग्रहणकर,
क्षमा करें बुटियाँ अब सारी॥
यथार्थता से घबराता नर खोज नहीं उसमें रस पाता,
रसानुभूति उसमें ही होती यह नसमझ नीरस बन जाता।
ऐसा नर शिव में भी केवल रौद्र भयानक रूप निरखता,
रसवन्ती धारा जो उनमें अवगाहन कर नहीं परखता।
ऐसी ही रस की झांकी शिव-शिवा रूप प्रस्तुत करता है,
मर्यादित शृंगार कभी मर्यादा भंग नहीं करता है।
इस विलास-लीला का आयें सूक्ष्मरूप जी भर कर देखें,
शिव-गिरिजा के प्रणय-भाव को आध्यात्मिक आँखों से देखें।
शंभु, उमा को साथ ले, आ पहुँचे कैलाश।
सुर लौटे निज धाम को, बना नया इतिहास॥
”जगत मातु पितु शंभु भवानी“ का शृंगार नहीं लिख पाता,
”करहि विविध विधि भोग विलासा“ कह कर भी केवल सकुचाता।
नित नूतन विहार करते करते ही काल विपुल जब बीते,
तब षट् बदन जन्म ले आये तारक असुर जिन्होंने जीते।
”आगम निगम प्रसिद्ध पुराना“ षन्मुख को सब जगने जाना,
पुरुषारथ प्रताप उसका लख सबने जन्म सफल निज माना।
शंकर-उमा विवाह-कथा को नारी-नर जो कहते-गाते,
मंगल मोद पूर्ण जीवन पा सदा सर्वदा वे सुख पाते।
कार्तिकेय ने जन्म लिया देवों के दुख सब दूर हुए,
सम्पत्ति सुख जो छिना गये थे मिले सभी सुख पूर्ण हुए।
आध्यात्मिक शिव-शिवा मिलनसे ‘मानस’-रत्न जब प्रकट हुआ,
कोटि-कोटि कंठों में गंगा उमड़ी भारत धन्य हुआ।
शिव-शिवा सम्वाद रूप में जग ने निज ‘मानस’ पाया,
धन्य धन्य गिरि राज कुमारी, जिसने ‘मानस’ - सर लाया।
श्रद्धा की उस देवी सदृश उपकार कौन करने वाला है,
किसके उर में ममता इतनी कौन सुयश देने वाला है।
शिव से रघुपति कथा पूछकर जिसने जन -कल्याण किया,
”सकल लोक पावनि गंगा“ का भू पर आह्वान किया।
दुराघर्ष भगवान शम्भु हैं, दुर्गम रुद्र नाम धारी है,
रामचरित मानस में वे ही श्रेष्ठ भक्त मंगल कारी है।
अनन्त गुणों के निलय देव का कौन चरित कहने वाला है,
भगवति उमा प्रशंसा के शब्दों से रस मिलने वाला है।
है स्वरूप व्यापक शिवका गिरिजा ही व्यक्त उसे करती,
कथा-कहानी गीत-नाद से नर हित व्यक्त सदा करती।
सर्वज्ञ समर्थ महा शिव शंकर सकल कला गुण ग्राम घाम है,
जोग ज्ञान वैराग्य सिन्धु हैं, कल्प वृक्ष अति पूर्ण काम है।
कला सदा दासी बन रहती नित्य रूप में वे थित रहते,
डमरू ध्वनि से सूत्र व्याकरण के निकालते स्थित रहते।
कृपा दृष्टि वैभव विलास की सदा सृष्टि करती रहती हैं,
जनमानस के हित पर ही उसकी दृष्टि लगी रहती है।
किन्तु नयन तीसरे खुले तो जग का नाशन रुक सकता,
है न असुर सुर कोई भूपर जिसके रोके रुक सकता है।
अतुलनीय शिवका चरित्र है अतुलित है अनुपम अति सुन्दर,
अवगाहन इस चरित सिन्धु का फल देता पावनतम सुन्दर।
मिला अनुग्रह शंभु का लिखा चरित का सार।
आजीवन मंथन किया सिन्धु न पाया पार॥
थाह सकूंगा सिन्धु क्या नदी न सकता थाह।
कृपा प्राप्ति हित शंभुकी सदा खोजता राह।
शक्ति मिले ऐसी कि भूलू तन, मन, धन, सुख, मान॥