जन्म
1881 मृत्यु=28 दिसंबर
जन्मस्थान
चमसुर गाँव, राजिम, छत्तीसगढ़, भारत।
कृतियाँ
खंडकाव्य)
छत्तीसगढ़ी दानलीला, राजिम प्रेमपियुष, काव्यामृवाषिणी, करूणा पचीसी, एडवर्ड राज्याभिषेक, विक्टोरिया वियोग (सभी काव्य), कंस वध (खंडकाव्य),
नाटक
सीता परिणय, पार्वती परिणय, प्रहलाद चरित्र, ध्रुव आख्यान, विक्रम शशिकला (सभी नाटक),
उपन्यास
श्रीकृष्ण जन्म आख्यान, सच्चा सरदार (उपन्यास),
अप्रकाशित संग्रह
श्रीराजिमस्त्रोत्रम महात्म्य, स्फुट पद्य संग्रह, स्वीकृति भजन संग्रह, रघुराज भजन संग्रह, प्रलाप पदावली, ब्राह्यण गीतावली और छत्तीसगढ़ी रामायण (अप्रकाशित) आदि
पंडित सुन्दरलाल शर्मा
राजिम के पास एक गांव है जिसका नाम है चमसुर। उसी चमसुर गांव में पं. सुन्दरलाल शर्मा का जन्म हुआ था। उनका जन्म विक्रम संवत 1938 की पौष कृष्ण अमावस्या अर्थात् 1881 ई० को हुआ था। इनके पिता थे पं. जयलाल तिवारी जो कांकेर रियासत में विधि सलाहकार थे, उनकी मां थीं देवमती देवी। पं. जयलाल तिवारी बहुत ज्ञानी एंव सज्जन व्यक्ति थे। कांकेर राजा ने उन्हें 18 गांव प्रदान किये थे। पं. जयलाल तिवारी बहुत अच्छे कवि थे और संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। पं. सुन्दरलाल शर्मा की परवरिश इसी प्रगतिशील परिवार में हुई।
चमसुर गांव के मिडिल स्कूल तक सुन्दरलाल की पढ़ाई हुई थी। इसके बाद उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई थी। उनके पिता ने उनकी उच्च शिक्षा की व्यवस्था बहुत ही अच्छे तरीके से घर पर ही कर दी थी। शिक्षक आते थे और सुन्दरलाल शर्मा ने शिक्षकों के सहारे घर पर ही अंग्रेजी, बंगला, उड़िया, मराठी भाषा का अध्ययन किया। उनके घर में बहुत-सी पत्रिकाएँ आती थीं, जैसे- "केसरी" (जिसके सम्पादक थे लोकमान्य तिलक) "मराठा"। पत्रिकाओं के माध्यम से सुन्दरलाल शर्मा की सोचने की क्षमता बढ़ी। किसी भी विचारधारा को वे अच्छी तरह परखने के बाद ही अपनाने लगे। खुद लिखने भी लगे। कविताएँ लिखने लगे। उनकी कवितायें प्रकाशित भी होने लगीं। 1898 में उनकी कवितायें रसिक मित्र में प्रकाशित हुई। सुन्दरलाल न केवल कवि थे, बल्कि चित्रकार भी थे। चित्रकार होने के साथ-साथ वे मूर्तिकार भी थे। नाटक भी लिखते थे। रंगमंच में उनकी गहरी रुचि थी। वे कहते थे कि नाटक के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है।
देश पराधीन है - यह बात उन्हें बहुत तकलीफ देती थी। इसलिए सन 1906 में वे पहुँचे सूरत जहाँ उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। वहां तिलक उग्र (गरम) दल का नेतृत्व कर रहे थे। गोखले के साथ जो थे वे नरम दल की तरफ से तिलक का विरोध कर रहे थे। सुन्दरलाल शर्मा और उनके साथी पं नारायण राव मेधावाले और डा. शिवराम गुंजे तिलकजी के साथ थे। सुन्दरलाल शर्मा ने सूरत कांग्रेस से लौटकर अपने सहयोगियों के साथ स्वदेशी वस्तुओं की दुकानें खोलीं। ये दुकानें राजिम, धमतरी और रायपुर में खोली गईं। इन दुकानों के माध्यम से वे स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करने लगे। जो भी खरीदने के लिए आते, उन्हें बताया जाता कि उन्हें विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए पर सन 1911 में हजारों रुपये का घाटा होने के बाद ये दुकानें बंद हो गयीं। सुन्दरलाल शर्मा और उनके सहयोगियों पर हजारों रुपयों का कर्ज हो गया।
पं. सुन्दरलाल शर्मा की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई चुपचाप हर मुसीबत का सामना अपने पति के साथ करती रहीं। उनके दो पुत्र थे - नीलमणि और विद्याभूषण। नीलमणि ने बनारस से शिक्षा प्राप्त की। ऐसा कहा जाता है कि वे अपने पिता के गुणों के सच्चे उत्तराधिकारी थे। सन 1918 में उनका देहान्त हो गया। पं. सुन्दरलाल शर्मा के जीवन पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा पर अपने-आप को सम्भालकर फिर से वे समाज के कार्य में कूद पड़े। सामाजिक वर्ण-व्यवस्था उनके मन को बहुत पीड़ा देती थी। सन 1918 में उन्होंने सतनामियों को जनेऊ पहनाया एवं उन्हें समाज में सवर्णों की बराबरी का दर्जा दिया। इसके बाद ब्राह्मण वर्ग उनका विरोध करने लगा। पर पं. सुन्दरलाल शर्मा अपनी राह पर सर ऊँचा कर चलते चले गये, जब मंदिर में अस्पृश्यता के नाम पर लोगों को प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, तब सुन्दरलाल शर्मा अत्यन्त व्यथित हो उठते। इसके विरोध में उन्होंने आन्दोलन चलाये। राजिम के राजीव लोचन मन्दिर में कहारों को प्रवेश दिलाने का आन्दोलन सन् 1918 में चलाया। सन् 1925 में राजिम के रामचन्द्र मन्दिर में हरिजनों के साथ प्रवेश किया।
पं. सुन्दरलाल शर्मा हमेशा कहते थे कि हमें समाज की बुराईयों को जल्द से जल्द दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उनका यह कहना था कि बचपन से ही किताबें पढ़ने की आदत होनी चाहिय। सन् 1914 में राजिम में उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की थी।
महात्मा गाँधी सन 1920 में छतीसगढ़ आये थे। उनको प्रथम बार छतीसगढ़ लाने का श्रेय सुन्दरलाल शर्मा को ही है। उस वक्त कण्डेल गांव में छोटेलाल बाबू के नेतृत्व में नहर सत्याग्रह आरम्भ हुआ था। इसी सन्दर्भ में सुन्दरलाल शर्मा गाँधीजी को लेने गये ताकि नहर सत्याग्रह और भी प्रभावशाली हो। गाँधीजी आ रहे है - यह खबर पहुँचते ही नहर विभाग के अधिकारियों ने आन्दोलनकारियों की बात मान ली।
सन् 1922 में यह निश्चय किया गया कि जगंल से लकड़ी काटकर कानून का उल्लंधन कर सत्याग्रह आरम्भ किया जाये। इसी सन्दर्भ में पं. सुन्दरलाल शर्मा और नारायण राव मेधावाले सिहावा में गिरफ्तार कर लिये गये। दोनों को एक वर्ष की सजा देकर रायपुर जेल में रखा गया। जिस दिन सजा सुनाई गई, उस दिन रायपुर और धमतरी में पूरी हड़ताल रही।
सन् 1923 में जेल से छूटने के बाद सुन्दरलाल शर्मा और उनके सहयोगी काकीनाड़ा कांग्रेस अधिवेशन के लिये रवाना हए। यह पदयात्रा 700 मील की थी जो उन्होंने बीहड़ जगंलों के बीच से की। इस पदयात्रा के दौरान वे आदिवासियों के बहुत करीब आये।
हर साल कांग्रेस अधिवेशन में लगातार जाते रहे, और प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे।
सन् 1930 में सुन्दरलाल शर्मा को एक वर्ष की कठोर सजा दी गई- यह था धमतरी तहसील में जंगल सत्याग्रह के सन्दर्भ में। उसके बाद 1932 में 6 माह की सजा हुई। रायपुर में दुकान पर पिकेटिंग करते हुए गिरफ्तार हुए थे।
सन् 1933 में जब गाँधीजी हरिजनोद्धार पर निकले थे, तो उन्होंने पं. सुन्दरलाल शर्मा को इस दिशा में अग्रणी बताया था।
पं. सुन्दरलाल शर्मा ने रायपुर में सतनामी आश्रम, राजिम में ब्रह्मचर्याश्रम और धमतरी में अनाथालय की स्थापना की थी।
साहित्य के क्षेत्र में उनका अवदान लगभग 20 ग्रंथ के रुप में है जिनमें 4 नाटक, 2 उपन्यास और काव्य रचनाएँ हैं। उनकी "छत्तीसगढ़ी दानलीला" इस क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है। कहा जाता है कि यह छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है।
पं. सुन्दरलाल शर्मा की योग्य पत्नी बोधनी बाई की सन 1929 में मृत्यु हो गई थी। पं. सुन्दरलाल शर्मा जी का निधन 28 दिसम्बर 1940 को हो गया। उनके जैसे बहुमुखी प्रतिभा बहुत ही कम हैं।