पखेरू का रोना है यही कि बिखरे तिनके चुन-चुन कर;
बनाया था जो मैंने नीड़, परिश्रम से सर धुन-धुन कर।
उसी ने मेरे उड़ते समय, एक भी बार न साथ दिया;
जिसे समझा था अपना सगा, उसी ने मुझसे दगा किया।
नीड़ का यह उलाहना है कि वृक्ष मैंने सम्पन्न किया;
जहाँ सब गूँगे फल थे, वहाँ चकहता, फल उत्पन्न किया।
किन्तु जब किसी क्रूर ने हाथ मार, तिनकों को बिखराया;
उस समय प्रतिशोधन तो दूर, वृक्ष प्रतिरोध न कर पाया॥
वृक्ष की यही शिकायत है कि छत्रवत मैंने छाया की;
अँगारे अपने सर पर झेल, धरा की शीतल काया की।
किन्तु भीषण आँधी के वेग, जब कि लाये दुस्सह बाधा;
उस समय पैर उखडते देख, धरा ने मुझे नहीं साधा।
सभी के उपालम्भ यों उतर रहे हैं, धरती के घर में।
किन्तु वह बेचारी क्या करे, पड़ी खुद दुहरे चक्कर में॥