भोर का
बावला पाखी मैं
भटकता हुआ दिन
मेरे साथ
गुम्बदों के अंक में
सिमट जाएगा
और पश्चिम दिशा
का संसार रात होने तक
उन कंगूरों पर छा जाएगा
-सहसा गंध-सा
डूबती सांझ के
उस उजले आलोक में
स्मृति के कैनवास पर
देर तक काँपेगी एक छायामय आकृति
फिर;चाहे वह
झरती हुई पत्ती
हो,या ...तुम!
सूरज फिर उगेगा
पूरब की ओर से!!