हरी घास के सीमांकन वाली
चिकनी साफ सुथरी पगडण्डी,
दोनों ओर करीने से सजे हैं
गुलाबी ऊन जैसे मुलायम पेड़,
टंगा है बैकड्रॉप में
बैंगनी आसमान।
बिलकुल अलहदा है यह
गांवों की धूल भरी पगडंडियों से,
मनचाहे रंग भरे हैं मैंने
इसके सृजन में।
घर की तरह अनोखी है
इसकी भी इंटीरियर-
सुगढ़ सुव्यवस्थित।
बरसों तना रहा
सुघड़ सज्जा का आवरण
घर की तरह मेरे मन पर भी,
पर्दे की चुन्नट ठीक करते
बीत गयी उम्र।
बिन बुलाई हवा को
नही दिया प्रवेश,
धूल भी ठिठकी रहती
अछूत कन्या सी
ड्योढ़ी के बाहर ही।
आत्ममुग्धता में बौराए बौराए
बिता दिया जीवन,
तमतमाते चुंधियाते सूरज सा
तने तने।
अब ढल रहा है दिन…
डूब रहा है सूरज..
ढीली पड़ रहीं सारी गिरहें…
खुल रही
इल्म की पोटली ,
छन रही है
बोध की चाँदनी,
बौना हो रहा बौरायापन,
बदल रही इंटीरियर
खुद ब खुद
अंतस की,
आसमान हो रहा
बैगनी से नीला,
पगडंडियां कुछ टेढ़ी मेढ़ी
बेढब अनगढ़
मिटटी के सच्चे रंग की।
ले रही हूँ मैं
एक नया जन्म