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पचास पार का पुरूष / अलकनंदा साने

पचास पूरे कर चुका पुरूष
पहचान में आ जाता है दूर से ही।

वह किसी स्त्री के नज़दीक से
घुमाता है अपनी दो पहिया
बेधड़क, लेकिन आहिस्ता से

कभी कभी हौले-से मुस्कुराता है
किसी परिचिता को सामने पाकर
जिसकी ओर देखने से भी डरता था
महज पांच साल पहले तक।

कंधे तक आ गई बेटी के साथ
चलता है वह चौकन्ना होकर
नहीं निकलता अब वह
घर से लाल टी शर्ट पहनकर

सब्जी भाजी के झोले के साथ
ख़ुशी ख़ुशी निभाता है जिम्मेदारी
चेहरा दमकता है उसका आत्मविश्वास से
निर्भीक होकर अब वह
महिला सहकर्मी का परिचय करवाता है
साथ चल रही पत्नी से

दो क़दम भी पीछे रह जाय संगिनी
तो पता चल जाता है उसे, रुकता है
कभी कभी अकेले में थर्रा जाता है
साथ छूट जाने के डर से

एक कमज़र्फ-सा लड़का
बदल जाता है धीरे धीरे
गम्भीर, संवेदी परिवार पुरूष में
उससे कोई नहीं पूछता उसकी आयु, उसका अनुभव
कहीं कोई बात नहीं चलती
उसके हार्मोनल अंत: स्त्राव की
पचास पार का पुरूष
पहचान में आ जाता है
वैसे ही ...
दूर से ही ...