पड़दौ / राजू सारसर ‘राज’

कठै लग समझूं
कठै लग सोचूं
ओच्छी रातां, लांबी बातां
पीड पछाडै
माजनो उपाडै
म्हारा मांयला सबद
नित रा बूझै सुवाल
मिणख कुण? बो कठै?
सैण कुण ? दोयण कुण ?
भींतां सूं रगड़का खांवती आंख्यां
पड़ज्यै राती,
पण पडूतर हीण छात लख
छाती पण छळीजै
जोऊं पडूतर
स्यात आज्यै हाथ
चिन्होक फरक
रोळ गिदोळ पण तरक
बणा राळै छनै’क में
ओपरा निजू अर निजू ओपरा
सोच्यां नी सळटै
स्यात बगत पड्यां ई उघड़ै।
ओ पड़दौ।

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