रश्मियाँ शशि की गगन से, ओस मधु बरसा रहीं। 
पतझरी रातें शिशिर की, याद पिय की ला रहीं॥
झर रहे हैं पात सारे, तरु अकेले हैं खड़े। 
खो गईं हैं कोयलें भी, शीत के पहरे पड़े॥
डालियाँ गुमसुम हुईं हैं, कण सजल सारे हुये। 
पंखुरी चुपचाप झरती, स्वप्न भी खारे हुये॥
धुंध में लिपटी दिशायें, गीत अविरल गा रहीं। 
पतझरी रातें शिशिर की, याद पिय की ला रहीं॥
शोभती है चाँदनी भी, दूब पर बन जल अभी। 
झिलमिलाती यामिनी भी, लग रहीं निर्मल अभी॥
ये सुखद पल अब शिशिर का, दे रहा विश्वास है। 
बाँध कर धरती गगन को, भर रहा इक आस है॥
तारिकाएं श्वेत आँचल, शून्य से ढलका रहीं। 
पतझरी रातें शिशिर की, याद पिय की ला रहीं॥
कब सवेरा हो रहा है, रात कब बीती कहो। 
उर्मियाँ भी कह रही हैं, दूरियाँ प्रिय की सहो॥
याद बन कर हूक उठती, सेज पर सोई हुई। 
भोर में लगती धरा ये, रात भर रोई हुई॥
आग बन कर ये हवायें, अब मुझे झुलसा रहीं। 
पतझरी रातें शिशिर की, याद पिय की ला रही॥