पतझर-सा लगे वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई
जिस सीमा में जग का जीवन बन्दी
जिस सीमा में कवि का क्रंदन बन्दी
जिसके आगे का देश सुनहरा है
जिस पर रहता भविष्य का पहरा है
वह सीमा बनी अनन्त
तुम्हारी याद न जब आई
जिस पथ पर अरमानों की हलचल आई
जिस पथ पर मैंने भूली मंज़िल पाई
जिस पथ पर मुझको मिली जवानी हँसती
विरहातप के संग शीतल कल-कल पाई
वह मिला धूलि में पंथ
तुम्हारी याद न जब आई
मैं अवसादों में पले प्यार की पीर पुरानी हूँ
जो अनजाने हो गई, हाय, मैं वह नादानी हूँ
वह नादानी बन गई आज जीवन की परिभाशःआ
प्राणों की पीड़ा बनी आज मृगजल की-सी आशा
आरम्भ बन गया अन्त
तुम्हारी याद न जब आई
पतझर-सा लगा वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई