पतन / मनोज कुमार झा

बारिश देखता था तो कागज की नाव बन जाता था
जंगल देखता था तो मोर
बच्चा देखता था तो उसके बालों का लाल रिबन बनता था
चिड़िया देखता था तो उसके पंख के पड़ोस की हवा।

किस ऋतु ने सोख लिया मन का शहद
कँवल देखता हूँ तो उसकी कीमत सोचता हूँ
हाथीदाँत देखूँ तो नहीं दिखे पुतली माँजती धवल धातु
दिखे एक विशाल जानवर के लोथ का महँगा हिस्सा
हद तो यह कि बच जो गई है कुछ अच्छाइयाँ
उन्हें मोल लेने का कोई ईश्वर ढ़ूँढ़ता हूँ ।

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