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पता पूछने वाले / शचीन्द्र आर्य

मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा।
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो। शायद वह बता सकें।

मैं ग़लत था।
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था।
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे।
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
आगे से दाएँ फिर बाएँ।

उनकी बताई जगहों पर पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली।

यह बात मैंने उन्हीं से सीखी।
कभी किसी को ग़लत रास्ता नहीं बताया।
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता।

जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए।
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझे में हमेशा बना रहा।
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में भटकना कैसा होता है।

हो पाता, तो
मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता।
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता।