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पतित / माखनलाल चतुर्वेदी

ममता के मीठे आमिष पर रहा टूटता भूखा-सा,
भावों का सोता कर डाला, तीव्र ताप से रूखा-सा।
कैसे? कहाँ? बता, चढ़ पाए जीवन-पंकज सूखा-सा,
आवे क्यों दिलदार, जहाँ दिल हो, दावों से दूखा-सा?
गिरने को जी चाह रहा है आगे और रसातल से,
ऊँचा शीश उठाकर देखूँ? पर, देखूँ किसके बल से?

रचनाकाल: सिवनी-मालवा-१९२४