Last modified on 2 अप्रैल 2014, at 14:45

पते की बातें. / हरिऔध

रुच गई तो रँगरलियाँ किस तरह।
दिल न जो रंगीनियों में था रँगा।
छिप सकेगी तो लहू की चाट क्यों।
हाथ में लहू अगर होवे लगा।

किस तरह तब निकल सके कीना।
जब कसर ही निकल न पाती है।
किस लिए बाल-दूब तो न जमी।
जो न पत्थर समान छाती है।

चैन लेने कभी नहीं देंगी।
खटमलों से भरी हुई गिलमें।
क्यों नहीं काढ़ता कसर फिरता।
जब कसर भर गई किसी दिल में।

क्यों न हम जोड़बन्द वाले हों।
कब सके जोड़ आइना फूटा।
पड़ गई गाँठ जब जुड़ा तब क्या।
टूट करके जुड़ा न दिल टूटा।

पेच भर पेच में कसेंगे ही।
जाँय दिल दूसरे भले ही हिल।
जब कि पेचीदगी भरे हैं तो।
क्या करें पेच पाच वाले दिल।

चल रहा है चाल बेढंगी अगर।
ऊब माथा किस लिए हैं ठोंकते।
वह अचानक रुक सकेगा किस तरह।
दिल रुकेगा रोकते ही रोकते।

है बड़ा बद कपूत कायर वह।
जो बदी बीज रख कपट बोवे।
चोर क्या चोर का चचा है वह।
चोर दिल में अगर किसी होवे।

जब दिया बेधा ही नहीं उस ने।
तब कहाँ ठीक ठीक बान लगा।
तान वह तान ही नहीं जिस को।
लोग सुनने लगें न कान लगा।

छोड़ दे जो बुरा बुराई ही।
तो उसे कौन फिर बुरा माने।
तब मिलेंगी न कौड़ियाँ कानी।
जब रहे कान से लगे काने।