पत्ते झरने लगे डाल से!
एक-एक कर-
दाँत गिर रहे जैसे-
बूढ़ी दादी के,
बर्फ पड़े तो लगते
जैसे, बिखरे
टुकड़े चाँदी के!
धीरे चलने वाला सूरज
राह नापता तेतज चाल से!
दिन छिलके उतारकर, लगते-
रक्खे उबले आलू से,
रातें लगतीं, जैसे हों-
निकलीं नदियों के बालू से!
मौसम से डर लगता
जैसे, इम्तहान वाले सवाल से!
-साभार: पराग, फरवरी, 1980, 54