मौसम से बेअसर रहा आया है
अनिद्रा का पत्थर।
इसका धैर्य इसे स्थायी बनाता है।
बिस्तर के साफ़ कोने में बैठकर
यह देखता रहता है कमरे का स्थापत्य
और इसकी सजावट।
चाय के लिए पूछने पर
यह उदासी से मुस्कुरा देता है
और सिरहाने पड़ी किताब उठा लेता है
यूँ ही पलटने के लिए।
इसे तर्कों से नहीं जीता जा सकता,
ना विनम्रता से ना बेचैनी से।
एक तपस्वी है यह।
तपस्या के अंत पर यह उठेगा
और मुझको ख़त्म कर देगा।