Last modified on 12 जुलाई 2008, at 12:14

पत्थर / प्रेमशंकर शुक्ल

घिस-घिस कर यह पत्थर

घाट की पहचान बन गया

कुछ तो है इसमें जड़ता के विरुद्ध

धड़क रहा जो मेरे हृदय में


एड़ियों की रंगत और हँसी की धूप

भरी है इसके भीतर

उदास आदमी की कविता

जल के किनारे

इसी के सहारे गाई गई


कुछ तो है इसमें ठस के बरक़्स

टिका है जिससे यह कोमल जल के किनारे

आदिकाल से।