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पत्थर का घोड़ा / अज्ञेय

 
आन-बान मोर-पेंच,
धनुष-बाण,
यानी वीर-सूरमा भी कभी
रहा होगा।
अब तो टूटी समाधि के सामने
साबुत खड़ा है
सिर्फ़ पत्थर का घोड़ा।
और भीतर के छटपटाते प्राण!
पहचान
सच-सच बता,
जो कुछ हमें याद है
उसमें कितनी है परम्परा
और कितना बस अर्से से पड़ा
रास्ते का रोड़ा?

सिकन्दरा-आगरा, 15 अगस्त, 1968