कवि सम्मेलन में जाय के पैन्हे
बाजेॅ लागलै मुन्ना माय रोॅ तुतरू।
तोहों की लिखै छोॅ कविता
हमरा लागै छौ उकरू।
खाली बैठलोॅ-बैठलोॅ कलम डोलाय छोॅ
कानै छै हमरोॅ वुतरू।
कहबौं जैन्होॅ कि लागतौं छक
कलम धरी मारेॅ लागभेॅ झक।
एक दिन खाना जौं नै बनतौं
तेॅ पेटों में मुरगा बोलतौं कुकरू।
दिन दुपहरिया, सांझ-बिहान
खाली लिखै पढ़ै रोॅ धियान।
दया नै लागै छौं तोरा,
कोन्टा में कानै छै बुतरू।
कहाँ-कहाँ से घुमी फिरी आवै छोॅ
हमरै पर रोव जमावै छोॅ।
नै खिलावै छोॅ बैल आरोॅ गैया
झुट्ठे जोड़ै छोॅ छन्द सवैया।
बोलै छियौं तेॅ लागै छौं उकरू
बच्चा जाड़ोॅ सें गेलोॅ छै ठुठरी।
सौंसे घोॅर मरै छै अन्नोॅ लेॅ हुकरी
या तेॅ तोंय ई कविता केॅ छोड़ोॅ ।
नै तेॅ समझोॅ, धर सें मुख मोड़ोॅ
तोरा सें नै होतैं, हम्मी देखवै बुतरू।