श्रद्वेय त्रिलोचन जी, कैसे हैं और कहां हैं
आप इन दिनों? जैसे भी है और जहां है
जूझ रहे ही होंगे जीवन, घर, समाज से
हर विपदा से। संघर्षों के मूल ब्याज से
मुख को मोड़े बढ़े चले ही जाते होंगे
दुख के घोड़े पर सवार हो गाते होंगे
अपनी रव में। याद आपकी आ जाती है-
मेरी थकी चेतना जब-जब घिर जाती है
अंधियारे में, नयी रोशनी पा जाती है
जीवन का उल्लास हृदय में भर जाती है
और आपका नाम सदा आंखों में आंजे
ऊबड़-खाबड़ पथ पर बढ़ता हूं मैं आगे।