पत्थरों के शहर में
पथरीली हवाओं से
केशर की क्यारियों
का दम घुट रहा।
मौसम ही फरेबी
बन बहारों को
यहाँ लूट रहा।
हिमालय का सीना
न जाने आग सा
क्यों उबल रहा
कि बर्फ उसका
लाल-लाल हो
पिघल रहा।
उन्मादी लहरों में
पहाड़ ही टूट कर
बह रहा।
रोके कौन उफनते
दरिया को जो
अपना ही किनारा
आज निगल रहा।
काली स्याह रात
न जाने कब आँखों
से नींद चुरा प्रपंच
भरे सपने भर रही
सुबह की किरणें
उम्मीदों की दहलीज
पर आ बार-बार मर रही।
चिनार के दरख्तांे पर
आज सफेद कबूतरों
के वेश में गिद्धों का
बसेरा है।
अपना बन सफेद
कबूतरों को ही
वे नोंच रहे।
अपने नापाक चोंच
से बार-बार जिस्म
उसका खरोंच रहे।
विश्वास हर मिनट
यहाँ दफन हो रहा
अवनि का ही हरा
दुपट्टा फट-फट
कर कफन हो रहा है।
एक दिन हवा का
वह तेज झोंका आएगा
फिर कोई प्रपंच
उसे न रोक पाएगा।
गिद्धों के नकाब
उतार उसे फिर
नंगा कर जाएगा।
केशर के फूलों से
फिर यह घाटी महकेगी।
लाल-लाल दहकते अंगारों
पर सफेद धवल बर्फ फिर बरसेगी।
चिनार के हरे-भरे
दरख्तों पर फिर
सफेद कबूतरों का जोड़ा चहकेगा।