पधाऽऽऽरो म्हारे देऽऽस
सदैव निमंत्रण पत्र-सी
बिछी रहती है रेत
किसी के भी स्वागत को तैयार
पावण कोई भी हो
मनुहार हमारा धर्म है
रेत दिल पर
छाप लेती है
पावणों के पद्चिन्ह
ले जाती है फिर गहरे कहीं
पावणों की निजता की रक्षा
का धर्म निबाहते हुए
नहीं देखने देती
किसी को भी
वो पदचिन्ह पुनः
रेत भेजती है
प्रेम पाती
बादलों कोे भी
उजाड़ सूने टीलों से
उठती रहती है आवाज
साजन के स्वागत में
मोती भरे थालों पर
नैन सजाकर
प्रतीक्षारत मरवण
रेत
ताकती रहती है
सूने आसमान में
कोई बादल तो होगा
जो जानता होगा
टूटकर बरसना
जो आ गया पावणा
उसकी मनुहार
कर लेगी रेत पर
वो बादल कब आयेगा
जो जानता है
टूटकर बरसना।