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पनघट के कुएँ पर बैठे / हरिवंश प्रभात

पनघट के कुएँ पर बैठे
अपनी कहानी हम दुहरायें
स्वाद ने जो सौगंध दिया
कैसे निज पलकें झपकायें।

पाँव तले की ज़मीं खिसकती
छोड़ो कितनी होती धरती
माफ खुदा भी कर देगा गर
दुनिया हम पर शक करती।
निकल जायेगी राह भी कोई
तीसरा रास्ता हम अपनायें।

हँस-हँसकर बातें करना ही
मानता हूँ आदत उनकी
जितना आगे प्यार बढ़ा है।
लौटना अब आफत मन की।
जीवन की संकट घड़ियों में
सोच-समझकर कदम बढ़ायें।

दुनिया को मालूम कहाँ है
हर मौसम की अगुआई में
निकल पड़े हैं प्यासे बादल
ज्यों सावन की तरुणाई में।
मद्धिम जलनेवाले दीपक
धर्म यही है उसे बुझायें।

खुश रहती है कैसे दुनिया
और नाराज़ी का कारण क्या
काश इसे हम जान भी जायें
पता नहीं है निवारण क्या?
उलझे हैं संवाद जहाँ पर
उनको और नहीं उलझायें।

एक ही साथ कई अचरज हैं
आते रहते जीवन पथ में
फिर भी नज़रें आशाओं से
लगी तुम्हारे अविकल रथ में।
सागर तट जाने से पहले
हम प्यासी नदियाँ बन जायें।