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पन्द्रहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

विश्व! तेरा भार किस पर!
बोल, तू किसके सहारे टिक रहा इस अवनि-तल पर?
उच्च ये अट्टालिकायें
छू रहीं जो तारिकायें

स्वर्ण-निर्मित कलश जिनके श्खिर पर शोभित निरन्तर॥
मधुरतम गुंजार जिनमें
मृदुलतम झंकार जिनमें
हिल रहे हृद तार जिनमें श्रवण कर कोमल मधुर स्वर॥
आ स्वयं मधुऋतु विहंस कर
वास करता है निरन्तर
प्रकृति भी विस्मित हुई जिसको निरखती नेत्र भर-भर॥
माँगने आते जहाँ कण
भिक्षुः पाते क्या? बचन-ब्रण
लौट जाते, किन्तु ‘हो कल्याण’ कहते मुस्कराकर॥
क्या यही अवलम्ब तेरे
क्या यही दृढ़ स्तम्भतेरे?
क्या यही जिनके सहारे जी रहा तू साँस लेकर?